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कविता

प्रेम

सुशीला पुरी


१.

प्रेम वक्रोति नहीं
पर अतिश्योक्ति जरूर है
जहाँ चकरघिन्नी की तरह
घूमते रहते हैं असंख्य शब्द
झूठ-मूठ के सपनों
और चुटकी भर चैन के लिए...!

२.

प्रेम एक बहुत ऊँचा पेड़ है
जिस पर चढ़ना मुश्किल
बस, करनी होती है प्रतीक्षा
कि आएगा कोई पंक्षी
जो खाकर ही सही
गिरा देगा एक मीठा फल,
और जब मिलता है वो
तो उसका काफी हिस्सा
पहले ही खाया जा चुका होता है...!

३.

प्रेम पर्वतों के बीच स्थित
झील है मौन की
जहाँ पानियों से ज्यादा
आँसुओं का अनुपात है
जहाँ स्थिर जल में
भागती मछलियाँ हैं
जहाँ एकांत के गोताखोर
खोजते रहते हैं
एक अँजुरी हँसी
और आँख भर आकाश...!

४.

प्रेम, खंडहरों के अंतःपुर में
झुरमुटों से घिरी
एक गहरी बावड़ी है
जिसके भीतर हम
ध्वनियों से गूँजते हैं
जाते हैं... लौटते हैं
सदियों से चुप उसके निथरे जल में
कुछ हरी पत्तियाँ, डालें और आकाश
देखते रहते हैं अपना चेहरा
पानी की आत्मा अपने हरेपन और
ध्वनियों के स्पर्श में थरथराती है...!

५.

प्रेम, आग... आँधी... बाढ़... बारिश
से बचता बचाता
छप्परों वाला घर है
मिटटी का
मन की हल्दी तन का चावल
पीस घोलकर बनती हैं अल्पनाएँ
चौखटों पर सिक्कों सी जड़ी होती हैं आँखें
जहाँ होते हैं... अगोर और आँसू
किंतु कभी द्वार में
किवाड़ नहीं होते...!

६.

प्रेम, एक नन्हीं गिलहरी है
जो बरगद की त्वचा पर
उछलती फुदकती
बनाती रहती है
अनंत अल्पनाएँ
और पास जाते ही
भागकर छुप जाती है
ऊँचे अनदेखे-अनजाने कोटरों में...!

७.

प्रेम, भूख भी है... आग भी
पकने तपने और स्वाद के बीच
कहीं न कहीं
बटुली में खदबदाती रहती है
एक चुटकी चुप
और ढेर सारी भाप...!

८.

प्रेम, एक खरगोश है
हरी दूब की भूख लिए
वन-वन भटकता
कुलाँचे भरता
डरा... सहमा
छुपता रहता है
मन की सघन कंदराओं में,
उसकी नर्म... मुलायम त्वचा की
व्यापारी यह दुनिया
नहीं जानती
उसके प्राणों का मोल...!

९.

पीतल की साँकलों वाला
भारी-भरकम
लोहे का द्वार है
जहाँ असंख्य पहरुए
प्रवेश वर्जित की तख्तियाँ लिए
घूमते रहते हैं रात-दिन...
और आपको
दाखिल होना होता है
अदीख हवा में
घुली सुगंध की तरह...!

१०.

प्रेम, कबूतरों का वह जोड़ा है
जो पिछली कई सदियों से
पर्वत गुफाओं में
गुटुरगूँ करता
पर दिखता नहीं
दिखती है सिर्फ
उनकी अपलक सी आँखें
और आँखों का पानी...!

११.

प्रेम में
अगन पाखी उड़ता है
भीतर ही भीतर
भीतर ही भस्म होते हम
खोजते रहते हैं
अपने हिस्से की मृत्यु
प्रेम के लिए
सिर्फ जीवन ही नहीं
मरण भी
उतना ही जरूरी है...!

१२.

बरसता है अमृत
अहर्निश
कटोरी के खीर में नहीं
पाँच तत्वों से बनी
समूची देह में,
कमबख्त चाँद को
ये कौन बताए...!

१३.

अगोरता
माँ का स्पर्श
किसी झुरमुट में
किसी कोटर में
किसी निर्जन में
पक्षी के बच्चे सा
दुबका रहता है प्रेम...!

 


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